झारखण्ड की संस्कृति

झारखण्ड की सांस्कृतिक स्थिति 

  • जनजातीय जीवन की आधारशिला उनकी परम्पराए हैं। क्योंकि समाज संस्कृति का नियमन भी वही से होता है तथा अनुशासन और मानवीय सम्बन्ध उसी की छत्रछाया में पुष्पित पल्वित होता है। 
  • आदिवासी प्रकृति के पूजक होते है उनके पर्व त्यौहार भी प्रकृति से जुड़े होते हैं। 
  • झारखण्ड के जनजातियों के दो बड़े त्यौहार सरहुल और करमा हैं। इसमें उपासना की जाती है।  अन्य त्योहारों में भी प्रकृति की सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। 
  • नामकरण , गोत्रबंधन एवं शादी-बयाह जैसे उत्सव भी प्रकृति से प्रेरित होते हैं।  
  • झारखण्ड की प्रत्येक जनजाति की पूजा पद्धति अपने परंपरागत विधि-विधान के अनुसार निर्धारित होती है।  इनमे मुख्यतः मातृदेवी और पितर देवता की पूजा होती हैं। 
  • यहाँ की जनजातियों की एक बड़ी संख्या अभी भी सरना धर्म की प्रथाओं की अनुसार पूजा अर्चना करती है। 
  • झारखण्ड के जनजातियों में मृतक-संस्कार में भिन्नता पायी जाती है यहाँ अलग अलग जनजातियां भिन्न भिन्न तरीकों से अंतिम संस्कार करते है इस क्रिया में मुख्यतः दी तरीके प्रचलित हैं।  कही मृतक को दफनाया जाता है तो कही जलाया जाता है। 
  • झारखण्ड का जनजातीय परिवार पितृसतात्मक है। 
  • प्रत्येक जाति अनेक गोत्रो में विभाजित है।  प्रत्येक गोत्र का अपना गोत्र चिन्ह होता है जिसे टोटम कहा जाता है , जो टोटम सामान्यतः पशु-पक्षी या पेड़ पौधो के नाम पर होता है। जनजातियां गोत्र चिन्हो को पूज्य मानती है।  इसलिए उनकी हत्या या कष्ट पहुंचने पर पाबंदी होता है। 
  • प्रत्येक जनजाति गोत्र के बाहर विवाह करती है।  गोत्र के अंदर विवाह  करना जनजातीय समाज में अपराध माना जाता है हालाँकि जनजातीय अपने जाति के अंदर ही विवाह करते है  . 
  • संतान पिता का गोत्र पाता है माँ का नहीं शादी के बाद लड़की अपने पति का गोत्र को  अपनाती है 
  • माता पिता की सम्पति पर पहला अधिकार पुत्रों का होता है किन्तु अविवाहित बेटियाँ का भी सम्पति में हिस्से का प्रावधान है 
  • उरॉव जनजाति में परिवार के धन पर सिर्फ पुरुष का अधिकार होता है स्त्री का नहीं। 
  • हो जनजाति में  किली के आधार पर परिवार बनते है किली एक सामाजिक और राजनितिक इकाई है। 
  • झांरखण्ड में जनजातियों में धार्मिक विश्वास और आस्था का आधार है।  बोंगा।  उनके अनुसार बोंगा वह शक्ति है , जो सम्पूर्ण जग के कण-कण में व्याप्त है।  उनका न कोई रूप है, न रंग 
  • संथाल, मुंडा , हो , बिरहोर आदि जनजातियों में आदि-शक्ति एवं सर्वशक्तिमान देव को सिंगबोंगा कहा जाता है माल पहाड़िया, उरॉव , और खड़िया जनजाति के लोग उसे ही धर्म-गिरिंग आदि नामो  से जाना जाता है। 
  • जनजातियों में ग्राम देवता को हातु बोंगा , दसौली बोंगा , चांडी बोंगा , आदि नामो नामों से पुकारा जाता है। 
  • मुंडा, हो आदि जनजातियों में गृह देवता को ओड़ा बोंगा के नाम से जाना जाता है 
  • जनजातियों के अधिकांश देवता प्रकृति प्रदत जंगल झाड़ आदि होते है , बुरु बोंगा , ईकरी बोंगा आदि के नामो  से जाना जाता है।  गांव ले बाहर सरना नामक स्थान होता है।  माना जाता है की वह देवताओ का निवास स्थान है वही पूजा होता है और बलि दी जाती है।  इसके लिए हर गांव में एक पाहन होता है। 
  • जनजातीय संस्कृति में अखाडा का एक खास महत्व है।  जहाँ पंचायत स्थल के         साथ-साथ गांव के मनोरंजन-केंद्र के रूप में भी पहचानी जाती है। 
  • जनजातियों में हड़िया सेवन का प्रचलन है धार्मिक कृत्यों सामाजिक त्योहारों और घर में आने वाले आतिथियो के सत्कार में हड़िया पीना-पिलाना अनिवार्य माना जाता है।   

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