झारखण्ड के कुछ मुख्य आन्दोलन


   धल विद्रोह

  • झारखण्ड में अंग्रेजो का आगमन सर्वप्रथम सिंहभूम-मानभूम की ओर से हुआ। अंग्रेजो के विरुद्ध सबसे पहले बिगुल इसी क्षेत्र में बजा था। 1769 ई. में अंग्रेजो के सिंहभूम में प्रवेश के तुरंत बाद धालभूम के अपदस्थ राजा जग्गनाथ धाल के नेतृत्व में एक व्यापक विद्रोह हुआ, जिसे धाल विद्रोह के नाम से जाना जाता था। धाल विद्रोह 10 वर्षो तक चलता रहा। अंग्रेजी कंपनी ने इस विद्रोह के दमन हेतु लेफ्टिनेंट रुक एवं चार्ल्स मैगन को भेजा गया , किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। 1777 ई. में अंग्रेजी कम्पनी ने जगन्नाथ धाल को पुनः धालभूम का राजा स्वीकार करने के पश्चात यह विद्रोह शांत हुआ। राजा बनने  के बदले में जगन्नाथ धाल ने अंग्रेजी कम्पनी को तीन वर्षो में क्रमशः 2000 रूपये , 3000 रूपये तथा 4000 रूपये वार्षिक कर के रूप में देना स्वीकार किया।  1800 ई. में इस राशि को बढ़ाकर 4267 रूपये कर दिया गया। 

पहाड़िया विद्रोह 

  • पहाड़िया जनजाति संथाल परगना प्रमंडल की प्राचीनतम जनजाति है। वास्तव में यही यहाँ की प्राचीनतम आदिम निवासी है। इनकी तीन उपजातियाँ है - माल : ये मुख्यतः बांसलोई नदी के दक्षिण में बसे हैं। , कुमारभाग : ये बांसलोई नदी के उतरी तट पर बसे हैं।, सौरिया : ये बांसलोई नदी के उतर राजमहल के पठारों पर बसे हैं। [पहाड़िया जनजाति राजपूत , मुस्लिम ,मुग़ल , एवं ब्रिटिश काल में विदेशी ताकतों से संघर्षरत रही। अंग्रेजो के खिलाफ इन्होने कई विद्रोह किये , जिन्हे जनजातियों के संघर्ष के इतिहास में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रथम व्यापक विद्रोह माना  गया।  1766 में रामना आहड़ी के नेतृत्व में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह के बाद पहाड़िया चैन से नही बैठे । 1772 के विद्रोह मे सूर्य चंगरु सवंरिया,पचगे डोम्बा पहाड़िया एवं करिया पुलहर शहीद हुए।  सन्कारा महाराजा सुमेर सिंह की हत्या कर दी गयी । सरदारी एवं जमींदारी के पतन के बाद भी पहाडिया लोगो का विद्रोह जारी रहा । 1790-1810 के बीच अंग्रेजो ने इस क्षेत्रों में संथालो का बहुसंख्या में प्रवेश कराकर पहाड़ियाँ को अल्पसंख्यक बना दिया । फिर भी , उनका विद्रोह जारी रहा । 

रामगढ़ विद्रोह
  • हजारीबाग क्षेत्र में कम्पनी को सबसे अधिक विरोध का सामना रामगढ़ राज्य की ओर से करना पडा। रामगढ़ के राजा मुकुन्द सिंह शुरु से अंत तक अंग्रेजो का विरोध किया । 25 अक्टूबर , 1772 को रामगढ़ राज्य पर दो तरफ से हमला हुआ। छोटानागपुर खास की ओर से कप्तान जैकब मैकब और दुसरी ओर से तेज सिंह ने मिलकर आक्रमण किया । 27-28 अक्टूबर को दोनो की सेना रामगढ़ पहुंची । कमजोर स्थिति होने के कारण रामगढ़ राजा मुकुन्द सिंह को भागना पड़ा। 1774 ई. में तेज सिंह को रामगढ़ का राजा बनाया गया । मुकुन्द सिंह के हटने तथा तेज सिंह को राजा बनाये जाने के बाद भी वहां स्थिति सामान्य नही हुई। मुकुन्द सिंह के अतिरिक्त उसके सम्बन्धी भी अपनी खोई हुई जगह को बचाने के लिये सक्रिय था । सितम्बर 1774 ई. में तेजसिंह की मृत्यु हो गयी इसके बाद  उसका पुत्र पारसनाथ सिंह गद्दी पर बैठा । मुकुन्द सिंह अपनी समर्थको के साथ उस पर हमला करने की तैयारी करने में लगा था , परन्तु अंग्रेजो के कारण उसे सफलता नही मिल रही थी 
  •  18 मार्च 1778 ई. को अंग्रेजो की सेना ने मुकुन्द सिंह की रानी सहित उसके सभी प्रमुख सम्बन्धियो को पलामू में पकड़ लिया । 1778 ई. के अन्त तक पुरे रामगढ़ राज्य में अशांति की स्थिति बन गयी । विद्रोहियो के दमन के लिये कप्तान एकरमन की बटालियन को बुलाना पड़ा। एकरमन और ले.डेनियल के संयुक्त प्रयास से रघुनाथ सिंह को चटगाँव भेज दिया गया । रामगढ़ की सुरक्षा का जिम्मा कैप्टन क्राफर्ड को सौप दिया गया । अंग्रेजी कम्पनी के निरन्तर बढ़ते सिकंजे तथा करो में  होती वृद्धि से रामगढ के राजा पारसनाथ अब स्वयं अंग्रेजो के चंगुल से निकलने का उपाय सोचने लगे । 1781 ई. में उसने बनारस के विद्रोही राजा चेतसिंह को सहायता की।
  •   1781 ई. के अन्त तक पुरा रामगढ़ में विद्रोह आग की तरह सुलगने लगा ।विद्रोह की तीव्रता को देख कर रामगढ़ के कलक्टर ने स्थिति को काबू में लाने के लिये सरकार से सैन्य सहायता की मांग की । 1782 ई. तक रामगढ़ के अनेक क्षेत्रो में उजाड की स्थिति बन गयी और रैयत पलायन कर गये । स्थिति की भयावहता को देखते हुये उप कलक्टर जी. डलास ने सरकार से आग्रह किया कि रामगढ़ के राजा को राजस्व वसूली से मुक्त कर दिया जाये राजस्व वसूली के लिये सीधा बन्दोबस्त किया जाये । रामगढ़ के राजा द्वारा इस नयी नीति के जोरदार विरोध के बावजूद डलास ने जागीरदारों के साथ खास बन्दोबस्त कर राजा द्वारा उनकी जागीर को जब्त किये जाने पर रोक लगा दी । अर्थात रामगढ़ का राजा अब सिर्फ मुखौटा बनकर रह गया। स्थिति का लाभ उठाकर तामड़ के जमींदारों ने रामगढ़ पर निरंतर हमला किया राजा पूरी तरह से अंग्रेजो पर आश्रित हो गया । यह स्थिति 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक बनी रही ।


तामड़ विद्रोह

  • तामड़ विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों को भूमि से वंचित किया जाना था । अंग्रेजी कंपनी, तहसीलदार, जमींदारों, एवं गैर आदिवासियों द्वारा उनपर अत्याचार किया जाना था । इस विद्रोह का प्रारंभ 1782 में छोटानागपुर की उराव्ं जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ हुआ जो 1794 तक चला । ठाकुर भोलनाथ सिंह के नेतृत्व में यह विद्रोह शुरु हुआ था , जो की इतिहास में तामड़ विद्रोह के नाम से प्रसिध्द हुआ


तिलका आंदोलन

  • तिलका आंदोलन का प्रारंभ 1783 ई. में तिलका मांझी के नेतृत्व में हुआ

इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासियों स्वायत्तता की रक्षा करना तथा अंग्रेजो को खदेड़ना था ।
उन्होने अंग्रजों के खजाना को लुटकर गरीबों में बँटना शुरु किया । तिलका मांझी ने सुल्तानगंज की पहाडियों से छापामार युध्द का नेतृत्व किया ।
तिलका मांझी को तीर से मारा जाने वाला अंग्रेज सेना का नायक अगस्टीन क्लीवलैंड था । 1785 में तिलका मांझी को धोखे से गिरफ़्तार कर लिया गया और भागलपुर में बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी । वह स्थान आज भागलपुर में बाबा तिलका मांझी चौक के नाम से प्रसिध्द है ।
भारतीय स्वधीनता संग्राम के पहले विद्रोही शहीद तिलका मांझी थे । इस विद्रोह मेंं महिलाएँ की भी भागीदारी थी।


चेरो आंदोलन 

  • पलामू की चेरो जनजाति ने ज्यादा कर वसुली एवं भूमि अधिग्रहण के खिलाफ 1800 ई. में भुखन सिंह के नेतृत्व में विद्रोह किया । इसे दबाने मेंं अंग्रजों ने छल-कपट एवं चालाकी का सहारा लिया । इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप 1809 ई. में ब्रिटिश सरकार ने छोटानागपुर में शान्ति बनाये रखने के लिये जमींदारी पुलिस बल का गठन किया ।

  1814 में पलामू परगना की नीलामी की आड़ में अंग्रजों ने इस पर अपना कब्जा कर लिया एवं शासन का दायित्व भारदेव के राजा घन्श्याम सिंह को दे दिया । इस विद्रोह का दमन कर्नल जॉन्स द्वारा किया गया ।


कोल विद्रोह

  • छोटानागपुर में अगर किसी ने अंग्रेजो को सबसे अधिक परेशान किया है । तो वो है कोल विद्रोह यह मुण्डा का विद्रोह था जिसमे हो जाति के लोगो ने खुलकर साथ  दिया था । इस विद्रोह में छोटानागपुर विशेषकर सिंहभुम , पलामू , मानभूम के कुछ भागो की जनजातियों ने भी भाग लिया
इस विद्रोह का मुख्य कारण भूमि संबंधी असन्तोष था । इस विद्रोह के एक प्रमुख नेता बुधु भगत था । इस युध्द में अपने भाई पुत्र तथा 100 अनुयायियों के साथ मारा गया । विद्रोह दबा दिया गया पर गांव के मुखिया एवं सात से बारह गांवो को मिलाकर बनाये गये पिर के प्रधान की जमीन वापस कर दी गयी ।


संथाल विद्रोह

जनजातिए विद्रोह मे संथाल विद्रोह सबसे जबरदस्त था । इस विद्रोह को हूल आन्दोलन, संथाल हूल, आदि नामों से जाना जाता हैं।
संथाल विद्रोह के नेता सिदो-कान्हू थे। इसमेंं इनके भाई चांद भैरव तथा बहन झानो व फूलों ने भी महत्वपुर्ण भुमिका निभायी थी। इस विद्रोह का प्रमुख कारण अंग्रेजी उपनिवेशवाद और उसमे होने वाले अत्याचार था। यह विद्रोह गैर-आदिवासियों को भगाने, उनकी सत्ता समाप्त कर अपनी सत्ता स्थापित करने क लिये छेड़ा गया। 30 जून 1855 को भगनाड़ीह मेंं 400 आदिवासी गावों के लगभग दस हजार आदिवासी प्रतिनिधि जमा हुए और सभा की। और इस सभा मेंं 'अपना देश और अपना राज' का नारा दिया गया और उन्होने खुला विद्रोह किया। इस सभा में सिदो को राजा, कान्हो को मंत्री, चांद को प्रशासक तथा भैरव को सेनापति चुना गया। शुरु में इस विद्रोह को दबाने के लिये जनरल लायड़ के नेतृत्व में एक सेना की टुकड़ी भेजी गयी। 1855 ई. में प्रारंभ हुआ यह विद्रोह केवल संथाल परगना तक ही सीमित नही था , बल्कि यह हजारीबाग, वीरभुम, सहित पुरा छोटानागपुर मेंं फैल गया। संथाल विद्रोह के दौरान महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दारोगा की हत्या कर दी गयी।
तब इस आन्दोलन के नेता सिदो एवं कान्हू को बड़हैत में फाँसी पर लटका दिया गया , जबकी चांद भैरव महेशपुर के युध्द मेंं अंग्रजो के गोली का शिकार हो गये। इस विद्रोह को संथाल विद्रोह का प्रथम जन क्रान्ति माना जाता है। संथालो के विद्रोह सिदो-कान्हू, चांद, भैरव, चारो भाईयों की बलिदान प्रसिध्द है। संथालो के इस विद्रोह का "बुराई पर अच्छाई की विजय" का नाम दिया। इस विद्रोह के दमन के बाद संथाल क्षेत्र को एक पृथक नॉन-रेगुलेशन जिला बनाया गया,जिसे संथाल परगना का नाम दिया गया।


मुण्डा विद्रोह

इस आन्दोलन के नायक बिरसा मुण्डा को धरती आबा या बिरसा भगवान भी कहा गया।
उनके द्वारा आन्दोलन को "उल्गुलान" (महा हलचल) कहा गया। यह आन्दोलन रजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक उद्देश्यों से प्रेरित था। ये अंग्रेजो के शासन के खिलाफ हुआ। इस विद्रोह का प्रारम्भ 1895 में हुआ। बिरसा मुण्डा ने अपने आप को भगवान का दूत घोषित किया। डुमबारू बुरु में बिरसा ने अपने विश्वसनीय लोगो, मंत्रियो और प्रतिनिधियो की एक सभा बुलायी, जिसमे 25 अक्टूबर 1899 को विद्रोह करने का निर्णय लिया गया। और खूंटी, रांची, तमाड़, बसिया, आदि जगहो पर इनके नेतृत्व में आन्दोलन हुआ। इन्होने दोन्का मुण्डा को राजनीतिक एव्ं सोमा मुन्दा को धार्मिक सामाजिक मामलो का प्रमुख बनाया।
बिरसा आन्दोलन का मुख्यालय खूंटी था। इस आन्दोलन को भी सरदारी आन्दोलन माना गया। 3 फरवरी 1900 को बंदगाँव के जगमोहन सिंह के आदमी वीर सिंह महली आदि ने 500 रुपये के लालच में बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार करवा दिया। बिरसा मुण्डा की मृत्यु 9 जुन 1900 को रांची जेल में हैजे के कारण हुई । बिरसा आन्दोलन के बाद 1902 ई. में गुमला को एवं 1903 ई . में खूंटी को अनुमंडल बनाया गया ।





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